बुधवार, 12 सितंबर 2012

परमा एकादशी


अर्जुन बोले : हे जनार्दन ! आप अधिक (लौंद/मल/पुरुषोत्तम) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम तथा उसके व्रत की विधि बतलाइये । इसमें किस देवता की पूजा की जाती है तथा इसके व्रत से क्या फल मिलता है?

श्रीकृष्ण बोले : हे पार्थ ! इस एकादशी का नाम परमा’ है । इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा मनुष्य को इस लोक में सुख तथा परलोक में मुक्ति मिलती है । भगवान विष्णु की धूपदीपनैवेधपुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए । महर्षियों के साथ इस एकादशी की जो मनोहर कथा काम्पिल्य नगरी में हुई थीकहता हूँ । ध्यानपूर्वक सुनो :

काम्पिल्य नगरी में सुमेधा नाम का अत्यंत धर्मात्मा ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री अत्यन्त पवित्र तथा पतिव्रता थी । पूर्व के किसी पाप के कारण यह दम्पति अत्यन्त दरिद्र था । उस ब्राह्मण की पत्नी अपने पति की सेवा करती रहती थी तथा अतिथि को अन्न देकर स्वयं भूखी रह जाती थी ।

एक दिन सुमेधा अपनी पत्नी से बोला: हे प्रिये ! गृहस्थी धन के बिना नहीं चलती इसलिए मैं परदेश जाकर कुछ उद्योग करुँगा ।

उसकी पत्नी बोली: हे प्राणनाथ ! पति अच्छा और बुरा जो कुछ भी कहेपत्नी को वही करना चाहिए । मनुष्य को पूर्वजन्म के कर्मों का फल मिलता है । विधाता ने भाग्य में जो कुछ लिखा हैवह टाले से भी नहीं टलता । हे प्राणनाथ ! आपको कहीं जाने की आवश्यकता नहींजो भाग्य में होगावह यहीं मिल जायेगा ।

पत्नी की सलाह मानकर ब्राह्मण परदेश नहीं गया । एक समय कौण्डिन्य मुनि उस जगह आये । उन्हें देखकर सुमेधा और उसकी पत्नी ने उन्हें प्रणाम किया और बोले: आज हम धन्य हुए । आपके दर्शन से हमारा जीवन सफल हुआ ।’ मुनि को उन्होंने आसन तथा भोजन दिया ।

भोजन के पश्चात् पतिव्रता बोली: हे मुनिवर ! मेरे भाग्य से आप आ गये हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि अब मेरी दरिद्रता शीघ्र ही नष्ट होनेवाली है । आप हमारी दरिद्रता नष्ट करने के लिए उपाय बतायें ।

इस पर कौण्डिन्य मुनि बोले : अधिक मास’ (मल मास) की कृष्णपक्ष की परमा एकादशी’ के व्रत से समस्त पापदु:ख और दरिद्रता आदि नष्ट हो जाते हैं । जो मनुष्य इस व्रत को करता हैवह धनवान हो जाता है । इस व्रत में कीर्तन भजन आदि सहित रात्रि जागरण करना चाहिए । महादेवजी ने कुबेर को इसी व्रत के करने से धनाध्यक्ष बना दिया है ।

फिर मुनि कौण्डिन्य ने उन्हें परमा एकादशी’ के व्रत की विधि कह सुनायी । मुनि बोले: हे ब्राह्मणी ! इस दिन प्रात: काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर विधिपूर्वक पंचरात्रि व्रत आरम्भ करना चाहिए । जो मनुष्य पाँच दिन तक निर्जल व्रत करते हैंवे अपने माता, पिता और स्त्रीसहित स्वर्गलोक को जाते हैं । हे ब्राह्मणी ! तुम अपने पति के साथ इसी व्रत को करो । इससे तुम्हें अवश्य ही सिद्धि और अन्त में स्वर्ग की प्राप्ति होगी |’

कौण्डिन्य मुनि के कहे अनुसार उन्होंने परमा एकादशी’ का पाँच दिन तक व्रत किया । व्रत समाप्त होने पर ब्राह्मण की पत्नी ने एक राजकुमार को अपने यहाँ आते हुए देखा । राजकुमार ने ब्रह्माजी की प्रेरणा से उन्हें आजीविका के लिए एक गाँव और एक उत्तम घर जो कि सब वस्तुओं से परिपूर्ण थारहने के लिए दिया । दोनों इस व्रत के प्रभाव से इस लोक में अनन्त सुख भोगकर अन्त में स्वर्गलोक को गये ।

हे पार्थ ! जो मनुष्य परमा एकादशी’ का व्रत करता हैउसे समस्त तीर्थों व यज्ञों आदि का फल मिलता है । जिस प्रकार संसार में चार पैरवालों में गौदेवताओं में इन्द्रराज श्रेष्ठ हैंउसी प्रकार मासों में अधिक मास उत्तम है । इस मास में पंचरात्रि अत्यन्त पुण्य देनेवाली है । इस महीने में पद्मिनी एकादशी’ भी श्रेष्ठ है। उसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और पुण्यमय लोकों की प्राप्ति होती है ।

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Rules for keeping Ekadashi:


Ekadashi is the 11th day of Lunar calender month in the Hindu calender system. This is a day for fasting or UpvaasPujya Bapuji says that "Upvaas" means Up - Vaas i.e., to stay close to God. Upvaas involves fasting while observing certain rules.  The purpose of fasting is to experience peace & bliss. Eating less enables the mind & body to function more effectively. Ekadashi days are very important & beneficial days for all householders. The rules for keeping fast/upvaas on this day are: 

1) One should not eat any cereals ("Ann" in hindi) like rice, pulses, wheat etc. & salt.
2) If possible, one should stay on water. Drinking Luke warm water or lemon-mishri (crystallized sugar) water is very good as it cleanses the hidden undigested food in the body. 
3) If one feels hungry, then one can take milk or fruit. Fruit should not be eaten with milk (therefore no strawberry shake, mango shake, chickoo shake etc.). One should not eat food like "sabudana", potato chips, fried food, etc. Also Banana is not recommended on this day since it is heavy to digest. 
4) One should think that he/she is keeping this vrat to please God & to progress further in "sadhana". 
5) One should observe self-control. 
6) One should do more of Maun-japa (repeating the name of God in mind) in the day time. 
7) One should do more of Dhyan & Bhajan by keeping awake for a longer time in the night


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सोमवार, 20 अगस्त 2012

वास्तविक उन्नति


(परमपूज्य बापूजी की अमृतवाणी)
वास्तविक उन्नति अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से, आत्मा-परमात्मा की प्रीति से, आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाने से होती है | जिसने सत्संग के द्वारा परमात्मा में आराम करना सीखा, उसे ही वास्तव में आराम मिलता है, बाकी तो कहाँ हैं आराम ? साँप बनने में भी आराम नहीं, भैंस बनने में भी आराम नहीं है, कुत्ता या कलंदर बनने में भी आराम नहीं, आराम तो अंतर्यामी राम का पता बताने वाले संतों के सत्संग में, ध्यान में, योग में | वहाँ जो आराम मिलता है, वह स्वर्ग में भी कहाँ है !

संत तुलसीदास जी कहते हैं:

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिय तुला एक अंग |
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ||

                                             (श्री रामचरितमानस सुन्दर कांड : ४)

सत्संग की बड़ी भरी महिमा है, बलिहारी है | ....

........ आगे पढने के लिए 'ऋषिप्रसाद' अगस्त २०१२ अंक देखें |

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सोमवार, 11 जून 2012

कर्म व विचार भी पैदा करते हैं दिव्य तरंगें

कर्म व विचार भी पैदा करते हैं दिव्य तरंगें
कर्म व विचार भी पैदा करते हैं दिव्य तरंगें
(पूज्य बापूजी की पावन अमृतवाणी)
कानपुर में एक बाई हो गयी, वृद्ध थी। स्वामी राम (जिनका देहरादून में आश्रम है) के गुरु की वह शिष्या थी। उसको गुरु का ज्ञान मिल गया था। उसका बेटा मशहूर डॉक्टर था – डॉ ए. एन. टंडन। उसने अपने पुत्र को बुलाया और बोलीः "अपने परिवार को बुलाओ, अब मैं संसार से जा रही हूँ। तुम रोना पीटना नहीं। जो जानना था वह मैंने गुरुकृपा से जान लिया है। मेरी मौत नहीं होती, शरीर बदलता है। पाँच भूतों से शरीर बना है, पाँच भूतों में मिल जायेगा। मिट्टी से घड़ा बना है और मिट्टी में मिल जायेगा, आकाश महाकाश से मिल जायेगा, ऐसे ही आत्मा परमात्मा से मिल जायेगा। तुम रोना-धोना नहीं। गुरु की कृपा से मेरी मोह-ममता मिट गयी है।"
टंडनः "माँ ! तुम क्या कह रही हो ? तुम कैसे जाओगी ! हमारा रहेगा कौन ?"
फिर तो माँ हँसने लगीः "बेटे ! तू अब से रो के, ʹमाँ-माँʹ करके मेरे को फँसा नहीं सकता। यह सब धोखा है। ʹयह मेरी माँ है, यह मेरा बेटा...ʹ यह सदा टिकता नहीं और जो वास्तव में है वह कभी मिटता नहीं। जो कल्पना में है वह कभी टिकता नहीं। कितने जन्मों के बेटे, कितने जन्मों के बाप, कितने जन्मों के पत्नियाँ-पति मानती थी, वे सब छूट गये, अभी भी छूटने वाले ही हैं। यह मेरा मकान.... न तो मकान रहेगा, न मकानवाला रहेगा। कभी-न-कभी दोनों का वियोग होगा। ये तो सब ऐसे ही हैं।"
ʹअरे, मेरा मकान चला गया....ʹ जाने वाला ही था। ʹमेरा बाप भी चला गया, दादा भी चला गया....ʹ यहाँ सब जाने वाले ही आते हैं।
बोलेः ʹमहाराज ! मेरे मन में ऐसा है, ऐसा है।ʹ अरे, तेरा एक मन क्या है, हजारों लाखों मन जिसमें है तू वह आत्मा है। एक मन की क्या सोचता है ! ʹमेरा मन ऐसा है, ऐसा हो जाय....ʹ अपने को जान ! मन को तू मन समझ और शरीर को शरीर, बुद्धि को बुद्धि समझ। दुःख व सुख को आऩे जाने वाला समझ और उसको जानने वाले को ʹमैंʹ रूप में जान ले तो अभी ईश्वरप्राप्ति... यूँ ! इतनी सरल है !
सरल है इसलिए राजा जनक को घोड़े की रकाब में पैर डालते-डालते आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति हो गयी थी। राजा परीक्षित को सात दिन में भगवान मिल गये थे। हमने भगवान को खोजने के लिए खूब दर-दर के चक्कर लगाये। फिर कोई बोलेः ʹअयोध्या में जहाँ बहुत साधु रहते हैं, वहाँ चले जाओ।"
अयोध्या में तो पाँच हजार साधु रहते हैं। अब पाँच हजार साधुओँ में से दस-दस साधुओं को एक-एक दिन में मिलें तो भी डेढ़ साल लग जायेगा। मैंने पाँच हजार साधुओं में से जो खूब पहुँचे हुए थे उनके नाम खोज लिये तो चार नाम आये। बोलेः "बहुत बड़ी उम्र के हैं, पहुँचे हुए हैं, त्यागी हैं।"
मैंने कहाः "चार में से जो सबसे विशेष हों उनके बारे में बताओ।"
तो बताया गयाः "वे जो घास-फूस की झोंपड़ी में रहते हैं, लँगोटी पहने रहते हैं वे बहुत पहुँचे हुए हैं।"
मैं उनके पास गया और कहाः "ईश्वरप्राप्ति के सिवाय मेरे को कुछ नहीं चाहिए।" तो उन्होंने साधन बताया – 12 साल नाभि में धारणआ कर जप करो, 12 साल नाभि से ऊपर, 12 साल हृदय में और 12 साल अन्य स्थान पर... ऐसे करके 48 साल साधना करनी होगी। मैंने कहाः "मैं तो एक साल भी नहीं रह सकता ईश्वरप्राप्ति के बिना। 48 साल ये सब साधन मैं नहीं कर पाऊँगा।"
मैं तो वहाँ से चला और जब साँईं लीलाशाह जी बापू के पास गया तो मेरे को 40 दिन में परमात्मा की प्राप्ति हो गयी। कहाँ तो बोले 48 साल के कोर्स के बाद भगवान मिलेंगे और कहाँ 40 दिन में मिल गये !
तो जैसे गुरु होंगे वैसा ही रास्ता दिखायेंगे। मेरे गुरूजी साँईं लीलाशाहजी बापू तो समर्थ थे। उन्होंने सत्संग सुना के 40 दिन में ब्राह्मी स्थिति करा दी। बात में अयोध्या गया तो वही साधु जिसको मैं गुरु बनाने की सोचता था और जिसने 48 साल का कोर्स बताया था उसने पहचाना ही नहीं, वही मेरा सत्कार करने लग गया। बोला "अच्छा आशाराम जी ! तुम्हारा तो बड़ा नाम है, तुम मेरे को मदद कर सकते हो ?"
उसको पता नहीं कि डेढ़ साल पहले यही लड़का मेरे आगे हाथ जोड़कर उछल कूद कर रहा था कि ʹमहाराज ! ईश्वरप्राप्ति करनी है, कृपा कर दो.....।ʹ वही आशाराम बापू हो गये। जब समर्थ गुरु मिल जाते हैं और अपनी तत्परता होती है तो झट से काम हो जाता है। कोई कठिन नहीं है।
तो कानपुर की उस बाई को ईश्वरप्राप्ति की लगन थी और उसके पास गुरु का ज्ञान था। बोलीः "बेटे ! ईश्वर को पाना है। मैं तो अभी शरीर छोड़ रही हूँ लेकिन जो कभी न छूटे उस परमेश्वर से एक होना है।"
बेटाः "माँ....माँ....." (रोने लगा।)
तो माँ हसने लगी, बोलीः "तू अब अज्ञान और ममता से मुझे फँसा नहीं सकता। रोओ-धोओ मत ! कमरा छोड़ के बाहर जाओ, मैं अकेले में ईश्वर में लीन हो रही हूँ। कुंडी बंद नहीं करूँगी। एकाध घंटे के बाद दरवाजा खोल देना।"
एकाध घंटे के बाद देखा तो माँ एकदम प्रसन्नचित्त लेकिन प्राण ईश्वर में लीन हो गये थे।
तो उसका जो कुछ अग्नि-संस्कार करना था, किया। बाद में जिस कमरे में वह बाई रहती थी, ध्यान-भजन करती थी, उस कमरे में जिस मंत्र का वह जप करती थी उस मंत्र की ध्वनि आने लगी।
चैतन्य महाप्रभु ने भी जब शरीर छोड़ा तो जिस कमरे में वे रहा करते थे, उस कमरे से ʹहरि ૐ.... हरि ૐ....ʹ की ध्वनि आती थी। टी.बी. (क्षयरोग) का मरीज मरता है न, तो जिस कमरे में वह रहता था उसी कमरे में कोई रहे तो उसको भी टी.बी. लग जाती है। ऐसे ही कोई भक्ति में, भगवान में एकाकार होकर शरीर छोड़ गया तो उस जगह पर दूसरों को भी भक्ति मिलती है। जहाँ जितना ऊँचा कर्म होता है, वहाँ उतनी ऊँची तरंगें होती हैं।
ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 6,7

हरि व्यापक सर्वत्र समानाः.....

हरि व्यापक सर्वत्र समानाः.....

(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)
गुजरात में नारायण प्रसाद नाम के एक वकील रहते थे। वकील होने के बावजूद भी उन्हें भगवान की भक्ति अच्छी लगती थी। नदी में स्नान करके गायत्री मंत्र का जप करते, फिर कोर्ट कचहरी का काम करते। कोर्ट-कचहरी में जाकर खड़े हो जाते तो कैसा भी केस हो, निर्दोष व्यक्ति को तो हँसते-हँसते छुड़ा देते थे, उनकी बुद्धि ऐसी विलक्षण थी।
एक बार एक आदमी को किसी ने झूठे आरोप में फँसा दिया था। निचली कोर्ट ने उसको मृत्युदंड की सजा सुना दी। अब वह केस नारायण प्रसाद के पास आया।
ये भाई तो नदी पर स्नान करने गये और स्नान कर वहीं गायत्री मंत्र का जप करने बैठ गये। जप करते-करते ध्यानस्थ हो गये। ध्यान से उठे तो ऐसा लगा कि शाम के पाँच बज गये। ध्यान से उठे तो सोचा कि ʹआज तो महत्त्वपूर्ण केस था। मृत्युदंड मिल हुए अपराधी का आज आखिरी फैसले का दिन था। पैरवी करके आखिरी फैसला करना था। यह क्या हो गया !ʹ
जल्दी-जल्दी घर पहुँचे। देखा तो उनके मुवक्किल के परिवार वाले भी बधाई दे रहे हैं, दूसरे वकील भी बधाई देने आये हैं। उनका अपना सहायक वकील और मुंशी सब धन्यवाद देने आये हैं। बोलने लगेः "नारायण प्रसाद जी ! आपने तो गजब कर दिया ! उस मृत्युदंड वाले को आपने हँसते-खेलते ऐसे छुड़ा दिया कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हम आपको बधाई देते हैं।
नारायण प्रसाद ने गम्भीरता से उनका धन्यवाद स्वीकार कर लिया। उनको तो पता था ʹमैं कोर्ट में गया ही नहीं हूँ।ʹ
संध्या करके जो कुछ जलपान करना था किया, थोड़ा टहलकर फिर शय़नखंड में गये। सोचते रहे कि ʹभगवान ने मेरा रूप कैसे बना लिया होगा ?ʹ इसके विषय में सूक्ष्म चिंतन किया। विचार करते-करते नारायण प्रसाद को हुआ कि ʹमुझे आज केस के लिए कोर्ट में जाना था, मुझे पता था और मुझे पता रहे उसके पहले मेरे अंतर्यामी जानते थे। मन में जो भाव आते हैं, उन सारे भावों को समझने वाले भावग्रही जनार्दनः हैं। जहाँ से भाव उठता है वहाँ तो वे ठाकुरजी बैठे हैं।
ʹथोड़ा ध्यान करके जाऊँगाʹ, यह मेरा संकल्प मेरे अंतर्यामी ने जान लिया। वह मेरा अंतरात्मा ही नाराय़ण प्रसाद वकील बन के, केस जिताकर मुझे यश देता है। यह प्रभु की क्या लीला है ! यह सब क्या व्यवस्था है !ʹ - यह विचार करते-करते सो गये।
थोड़ी नींद ली, इतने में उनके कानों में ʹनारायण..... नारायण.... नारायण.... ʹ की आवाज सुनायी दी और वे अचानक उठकर बैठ गये। उन्हें लगा कि ʹयह आवाज तो मेरे घर के प्रवेशद्वार से अंदर आ रही है।ʹ कौन होंगे ?
दरवाजा खोला तो देखा कि एक लँगोटधारी महापुरुष खड़े हैं। वे आदेश के स्वर में बोलेः "अरे नारायण ! कब तक सोता रहेगा, खड़ा हो जा।" वे उन महापुरुष के नजदीक आकर खड़े हो गये। वे घर से बाहर निकले। नारायण प्रसाद उनके पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर बोलेः "अरे, जेब में क्या रखा है ? लोहे का टुकड़ा जेब में रखा है क्या ?"
देखा कि जेब में तिजोरी की चाबियाँ हैं। उन्होंने चाबियाँ वहीं रास्ते में फेंक दीं। आगे बाबा, और पीछे नारायण प्रसाद। जाते-जाते एकांत में नारायण प्रसाद को बाबाजी ने ज्ञान दिया कि ʹवे परमात्मा विभु-व्याप्त हैं। वे यदि अंतरात्मा रूप में नहीं मिले तो बाहर नहीं मिलते हैं। यह उन्हीं आत्मदेव की लीला है। वे ही आत्मदेव तुम्हारा रूप बनाकर केस जीतकर आये हैं। उन परमेश्वर को पा लो, बाकी सब झंझट है।ʹ
लँगोटधारी बाबा थे नित्यानंद महाराज। एक तो वज्रेश्वरी के मुक्तानंद जी के गुरु नित्यानंद जी हो गये, ये दूसरे थे। इंदौर से करीब 70 किलोमीटर दूर धार में इनका आश्रम है, मैं देखकर आया हूँ।
नित्यानंद जी बड़े बाप जी के नाम से प्रसिद्ध थे। नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद को इतना स्नेह करने लगे कि लोग नारायण प्रसाद को छोटे बाप जी बोलने लगे।
छोटे बापजी मानते थे कि ʹवास्तव में तत्त्वरूप से गुरु का आत्मा नित्य, व्यापक, विभु, चैतन्य है और मैं भी वही हूँ।ʹ बड़े बाप जी भी मानते थे कि ʹनारायण प्रसाद का शरीर और मेरा शरीर भिन्न दिखता है लेकिन चिदानंद आकाश दोनों में एकस्वरूप है।ʹ
एक बार उत्तराखंड से कुछ संत नित्यानंद महाराज के दर्शन-सत्संग के लिए धार शहर में स्थित आश्रम में आये थे। नारायण प्रसाद आश्रम की सारी व्यवस्था सँभालते थे। उन्हें लगा कि बड़े बाप जी सबसे ज्यादा महत्त्व नारायण प्रसाद को देते हैं। विदाई के समय नित्यानंद बाबा ने कहाः "चलो, संत लोग आज विदाई ले रहे हैं तो हम आपके साथ बैठकर फोटो निकलवायेंगे।" आग्रह किया तो सब संत राजी हो गये।
फोटोग्राफर ने फोटो लिये। जब फोटो खींचे गये उसमें नारायण प्रसाद को शामिल नहीं किया। लेकिन जब फोटो को प्रिंट किया तो नारायण प्रसाद का फोटो बाबा के हृदय में दिखायी दे रहा था ! फोटोग्राफर दंग रह गया कि ʹयह कैसे ! किसी के हृदय में किसी का फोटो आ जाये !"
बोलेः "बाबा ! यह क्या है ?"
बड़े बाप जी बोलेः "मैं क्या करूँ ? इसको कितना दूर रखूँ, यह तो मेरे हृदय में समा के बैठ गया है।" तो मन में जिसकी तीव्र भावना होती है, वह हृदय में भी दिखायी देता है। नारायण प्रसाद की तीव्र प्रीति, भावना थी तो फोटो में बाबा जी के हृदय में नारायण प्रसाद आ गये।
हमारे कई साधकों के हृदय में कार मंत्र की, हरि मंत्र की महत्ता है तो बैंगन काटते हैं तो कार दिखता है, रोटी बनाते हैं तो उस पर कार उभरता है। आपकी भगवान के प्रति जैसी तीव्र भावना होती है वैसा उसका सीधा असर पड़ता है और दिखायी भी देता है।
नित्यानंद बाबा नारायण प्रसाद से बोलते थे कि ʹनारायण भी तत्त्वरूप से आत्मदेव हैंʹ तो उनहे हृदय में आकृतिवाले नारायण प्रसाद दिखायी दिये।
बाबा के जीवन में बहुत सारी आध्यात्मिक चमत्कारिक घटनाएँ घटीं लेकिन बड़े-में-बड़ा चमत्कार यह है कि बाबा इन सब चमत्कारों को ऐहिक मानते थे और सारे चमत्कार जिस सत्ता से होते हैं, उस आत्मा-परमात्मा को ʹमैंʹ रूप में जानते थे।
तो ध्यान-भजन करने से आपका पेशा बिगड़ता नहीं बल्कि आपकी बुद्धि में भगवान की विलक्षण लक्षण वाली शक्ति आती है। आप लोग भी इन महापुरुषों की जीवनलीलाओं से, घटनाओँ से अपने जीवन में यह दृढ़ करो कि-
हरि व्यापक सर्वत्र समाना।
प्रेम में प्रगट होहिं मैं जाना।।
(श्रीरामचरित. बा.कां. 184.3)
भगवान व्यापक हैं उनके लिए जिनके हृदय में प्रीति होती है, उनके हृदय में वे प्रकट होते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2012, अंक 233, पृष्ठ संख्या 12,13
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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

भगवान ने जगत क्‍यों बनाया ?

भगवान ने जगत क्‍यों बनाया ?

भगवान ने जगत क्‍यों बनाया ?
ये संसार भगवान ने पुजवाने के लिये नहीं बनाया, जैसे नेता वोट बैंक के लिये अपने एरिया में घूमता है ऐसे भगवान सृष्‍टि करके अवतार लेकर वोट बैंक के लिये नहीं आते अथवा वोट बैंक के लिये भगवान ने ये सृष्‍टि नहीं बनाई । भगवान ने आपको गुलाम बनाने के लिये भी सृष्‍टि नहीं बनार्इ । भगवान ने आपको अपने अलौकिक आनंद, माधुर्य, ज्ञान और प्रेमाभक्‍ति के द्वारा अपने से मिलने के लिये सृष्‍टि बनाई । भगवान परम प्रेमास्‍पद है । बिछड़े हुए जीव अपने स्‍वरूप से मिले इसलिये सृष्‍टि है । वो सृष्‍टि में अनुकूलता देकर, योग्‍यता देकर आपको उदार बनाता है कि इस योग्‍यता का आप ‘‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’’ सदुपयोग करो और प्रतिकूलता, विघ्‍न-बाधा देकर आपको सावधान करता है कि संसार तुम्‍हारा घर नहीं है । ये एक पाठशाला है, यहां से आप यात्रा करके मुझ परमेश्‍वर से मिलने आये हो । इसलिये दुख भी भेजता है । दुख सदा नहीं रहता और सुख भी सदा नहीं रहता । धरती का कोई व्‍यक्‍ति सुख को टिकाये रखे, संभव ही नहीं । दुख को टिकाये रखो, संभव नहीं है क्‍योंकि उसकी व्‍यवस्‍था है । सुख भी आकर तुम्‍हे उदार और परोपकारी बनाने का संदेश देता है । आप सुख के भोगी हो जाते हो तो रावण का रास्‍ता है और सुख को ‘’बहुजन हिताय’’ बांटते हो तो रामजी का रास्‍ता है । सुख को अपना भोग बनाते हो तो कंस का रास्‍ता है और सुख को बहुतों के लिये काम में लाते हो तो कृष्‍ण का रास्‍ता है । ऐसे ही दुख आया तो आप दुख के भोगी मत बनो । दुख आया है तो आपको पाठशाला में सिखाता है कि आप लापरवाही से उपर उठो, आप संसारी स्‍वाद से उपर उठें । संसारी स्‍वाद लेकर आपने कुछ ज्‍यादा खाया है तो बीमारी रूपी दुख आता है अथवा वाहवाही में आप लगे तो विघ्‍न और निंदा रूपी दुख आता है लेकिन वाहवाही में नहीं लगे फिर भी महापुरूषों के लिये कई कई उपद्रव पैदा होते है ताकि समाज को सीख मिले कि महापुरूषों के उपर इतने-इतने उपद्रव आते है, अवतारों पर इतने उपद्रव आते है पर वो मस्‍त रहते है, सम रहते है तो हम काहे को डिगें? हम काहे को घबरायें? ये व्‍यवस्‍था है । कृष्‍ण पर लांछन आये, रामजी पर लांछन आये, बुद्ध पर लांछन आये, कबीरजी पर आये, धरती पर ऐसा कोई सुप्रसिद्ध महापुरूष नहीं हुआ जिन पर लांछन की बौछार न पड़ी हो ।

-  Param Pujya Saint Sri Asharam Ji Bapu

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रविवार, 25 मार्च 2012

समस्त पापनाशक स्तोत्र


भगवान वेदव्यास द्वारा रचित 'अग्नि पुराण' में अग्निदेव ने महर्षि वशिष्ठ को विभिन्न उपदेश दियें हैं। इसी पुराण में भगवान नारायण की दिव्य स्तुति की गयी है| महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनतावश चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित्त कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है। उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है। भगवान नारायण की दिव्य स्तुति ही 'समस्त पापनाशक स्तोत्र' है।


राधे-कृष्ण !!


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पापमोचनी एकादशी

 

महाराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से चैत्र (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार फाल्गुन ) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की तो वे बोले : राजेन्द्र ! मैं तुम्हें इस विषय में एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर महर्षि लोमश ने कहा था

मान्धाता ने पूछा: भगवन् ! मैं लोगों के हित की इच्छा से यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्र मास के कृष्णपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है, उसकी क्या विधि है तथा उससे किस फल की प्राप्ति होती है? कृपया ये सब बातें मुझे बताइये

लोमशजी ने कहा: नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकाल की बात है अप्सराओं से सेवित चैत्ररथ नामक वन में, जहाँ गन्धर्वों की कन्याएँ अपने किंकरो के साथ बाजे बजाती हुई विहार करती हैं, मंजुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर मेघावी को मोहित करने के लिए गयी वे महर्षि चैत्ररथ वन में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करते थे मंजुघोषा मुनि के भय से आश्रम से एक कोस दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंग से वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी मुनिश्रेष्ठ मेघावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस सुन्दर अप्सरा को इस प्रकार गान करते देख बरबस ही मोह के वशीभूत हो गये मुनि की ऐसी अवस्था देख मंजुघोषा उनके समीप आयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिंगन करने लगी मेघावी भी उसके साथ रमण करने लगे रात और दिन का भी उन्हें भान रहा इस प्रकार उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो गये मंजुघोषा देवलोक में जाने को तैयार हुई जाते समय उसने मुनिश्रेष्ठ मेघावी से कहा: ब्रह्मन् ! अब मुझे अपने देश जाने की आज्ञा दीजिये



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शनिवार, 7 जनवरी 2012

श्रीमद् भगवद्गीता - परमपूज्य बापूजी के अमृतमय वचन

श्रीमद् भगवद्गीता एक ऐसा ग्रन्थ है जो दिव्य ज्ञान से भरपूर है| इस ज्ञान रूपी अमृतपान से मनुष्य के जीवन में साहस, हिम्मत, समता, सहजता, स्नेह, शांति, सर्वजनहिताय भावना और धर्मं आदि दैवी गुण विकसित हो उठते हैं| इसके पठन व मनन से अधर्म और शोषण का मुकाबला करने का सामर्थ्य आ जाता है|

गीता जयंती के अवसर पर संत शिरोमणि परमपूज्य श्री आशाराम बापूजी ने श्रीमद् भगवद्गीता पर तात्विक प्रवचन किया है| बापूजी के प्रवचनों से कुछ अमृतमय अंश प्रस्तुत है, अवलोकन व श्रवण करें:




श्रीमद् भगवद्गीता का देवत्व



श्रीमद् भगवद्गीता में शांति पाने के ६ उपाय



श्रीमद् भगवद्गीता सार भाग - १



श्रीमद् भगवद्गीता सार भाग - २



श्रीमद् भगवद्गीता सार भाग - ३



श्रीमद् भगवद्गीता सार भाग - ४




श्रीमद् भगवद्गीता सार भाग - ५



श्रीमद् भगवद्गीता सार भाग - ६




श्रीमद् भगवद्गीता सार भाग - ७


सादर,

हेमंत कुमार दुबे

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अमृत वर्षा

संतों की वाणी अमृत सामान होती है और जन कल्याणकारी होती है | प्रस्तुत वीडियो में परम पूज्य संत शिरोमणि श्री आशाराम बापू जी की वाणी से बरसते अमृत तुल्य वचनों के श्रवण से जीवन को पावन करते हुए एक नयी दिशा प्राप्त करें और आनंद का अनुभव करें | देखें :




सादर,
हेमंत कुमार दुबे
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